प्रथम सर्ग: पृष्ठ्भूमि
आज कृतघ्न मन से,
हर ह्रदय की गाथा गाता हूँ |
जब गजनी चला हिन्द की और,
उस पल का शोर सुनाता हूँ ||
सत्ताईश बरस का बासिन्दा वो,
तुर्को का था नुमाइंदा वो |
विश्व पटल पर आ धमका,
उसकी नजर थी जिस पर हिन्द था वो ||
वो बाहुबली हठकर्मी था,
बहली नहीं कुकर्मी था ।
यौवन हिंसा रहती थी,
वो एक और अधर्मी था ।।
जब हिन्दू कुश पर आ पहुंचा,
सहसा वह थिरक उठा ।
अभिभूत हो गजनी बोला ,
अल्लाह! ये कैसे नगरी है |।
है देखी मैंने सौ भूमि-भूप,
पर धरा न देखि ऐसी रूप ।
प्राणी प्राणी पर प्रदीप्त है,
कण कण में है जग संग धुप ||
कैसे ये पर्वत नभ में मिलते है?
क्यों जल बहता है देव स्वरुप?
कैसे हर खग कीड़ा करते है
ये नयन देखे ऐसी धरा बहरूप||
सिंधु से हिन्दू तक जल अथाह,
किस oर से यह आता है ?
समूचा है यही प्रवाहित
या कंही और भी जाता है तो ?
अगर कंही और भी जाता है ,
क्यों हमे यह नहीं आता है?
अगर ये सिर्फ सिंधु को जाता है तो
क्यों है इसी का स्वर्ग से नाता है?
है मन में प्रश्न अनंत हजार
क्यों है ये देवभूमि आधार ?
क्या और भी वट लगते है जग में?
हाँ! तो कैसे बरस भर जल पता है ?
थी मांगी खुसबू ऐसी बरकत में
जो यह पारी पसरी है
क्यों सुख चैन नहीं है हमको
यह सब जन जसरी है रब में ||
यह देख गजनी का अटका है
वह सहसा नहीं अब रहता है
सब बिसरा सहस्त्र सैनिको संग
गजवा-ऐ-हिन्द स्वपन उसने देखा है ||
द्वितीय सर्ग: संशय
अवाक् रह यह उसने सोचा
क्या विजय रण में मैं दौडूंगा
क्या यूँ ही बनकर मूक-बधिर
सिर्फ स्वप्न में घोड़े छोड़ूगा
सोच रहा हु इस स्वंब्ल से क्या हिन्द
मेरा होगा या मैं हिन्द को रौंदूगा
इस विराट हिमालय की बाहुबलों को
खंडित कर भी लिया तो कैसे तौलूँगा
इस विशाल सिंधु पर चल होगा
हुई विकराल तो कैसे तैरूंगा ?
क्या सीमित होगा जल प्रवाह और नहीं
तो किस नृप को शीश सौपूंगा ?
अगर सफल हुआ जो पौरुष मेरा
क्या यह जननी मुझको स्वीकारेगी ?
जन जन नहीं यदि सारथि हुआ जो मेरा
तो क्या यह प्रकति भी मुझको दुत्कारेंगी?
इस खंडित खंडित भारत में
क्या मैं विजय अपनी निश्चित समझू?
हुए जो संगठित तटवर्ती राजा तो
क्या वीरगति मैं निश्चित समझू ?
चला जो मैं संग्राम की और
क्या उस पल भी मैं ऐसे सोचुगा?
जय हुई तो पर्व होगा, गर मिली पराजय
तो क्या मैं गजनी को लौटूंगा?
इन अपभ्रंशित राज्यों को
क्या छली होकत छलना होगा?
या रक्त की प्यासी गजनी खडग को
हिन्दू लहू से ही तृप्त करना होगा?
क्या फिर रक्त रंजीत हुई धरा में
कंही विह्वल होकर बैठूंगा
हुए स्वाभिमानी ऋषि जो ठहरे
तो कैसे सोमनाथ को लूटूँगा ?
सायद पग-पग हमको लड़ना होगा
चित्त न पल भर धरना होगा
धुप ग़म पानी पत्थर भलो और कृपानो पर
निरंतर अविचलित होकर चलना होगा |
... जारी है
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